शिक्षा मंत्रालय: काम के अनुरूप नाम जरूरी था

देहरादून। नाम किसी के गुण और कार्य का प्रतिनिधि एवं प्रतीक होता है। इसलिए कहा जाना चाहिए कि नाम में बहुत कुछ रखा है। केंद्रीय मंत्री डाॅ.रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ ने संभवतः इसी थ्योरी पर सोचने के बाद अपने मंत्रालय का नाम बदलकर शिक्षा मंत्रालय किया है।
शिक्षा भारत सरकार की प्राथमिकता में रही है। यह समवर्ती सूची का विषय है। अर्थात् शिक्षा व्यवस्था केंद्र के साथ ही राज्य का दायित्व भी है। प्राथमिक से लेकर स्नाततकोत्तर और अन्य प्रकार की शिक्षा की व्यवस्था अथवा इसकी देख-रेख जो विभाग करता हो, वह शिक्षा मंत्रालय कहलाना चाहिए, राज्यों में इसका यही नाम है, लेकिन केंद्र में इसका नाम ‘मानव संसाधन विकास मंत्रालय’ था। यह नाम राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में दिया गया था। इस नाम से बोध होता था कि देश के भविष्य के निर्माता शिक्षक गुरु न होकर एक संसाधन यानी मैटीरियल थे। वह एक सामग्री थी। उक्त नाम से गुरुओं के ज्ञान को महत्त्व नहीं मिलता प्रतीत होता था। ‘मानव संसाधन विकास मंत्रालय’ नाम से स्पष्ट बोध नहीं होता था कि यह मंत्रालय आखिर किसका है?
डा.रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ ने यह ऐतिहासिक निर्णय लेकर मंत्रालय को उसके कार्य के अनुसार नाम दिया है। शिक्षा नीति 2020 के अंतर्गत निशंक द्वारा लिए गए ऐसे फैसलों को दूरगामी अच्छे परिणाम दिखाई देंगे।
लंबे अरसे से शिक्षक मांग कर रहे थे कि उन्हें गैरशिक्षण कार्यों से मुक्ति दी जाए। इस पर इस नीति में मुहर लगी है। दरअसल, परीक्षा परिणामों के दौरान शिक्षकों को कोसा जाता है। उनसे सवाल पूछे जाते हैं कि मोटी तनख्वाह देने वाले शिक्षक बच्चों को पढ़ाते क्यों नहीं हैं? लेकिन शिक्षकों की दिक्कत यह है कि उनसे उनके मूल कार्य के साथ ही अन्य कामों में लगाया जाता है। उन्हें बूथ लेवल आफीसर बनाने के साथ ही मिड डे मील की व्यवस्था में भी लगाया गया है।
यानी ब्लैकबोर्ड पर लिखने के बजाय वे मतदाताओं का हिसाब-किताब बनाएंगे और दाल-चावल भी तोलेंगे। वे इन कामों में उलझे रहेंगे तो अपना मूल कार्य कब करेंगे। इसका बड़ा दुष्परिणाम यह हो रहा था कि बच्चों को अपेक्षित ज्ञान नहीं मिल पा रहा था और शिक्षकों का अपना ज्ञान भी डंप हो रहा था। नई शिक्षा नीति में व्यवस्था की गई है कि अब अध्यापक न तो बीएलओ रहेंगे और न ही उन्हें मिड डे मील योजना की व्यवस्था देखनी होगी। हां, उन्हें केवल पहले की तरह चुनाव ड्यूटी करनी होगी।
दरअसल, चुनाव ड्यूटी से अध्यापकों को हटाना इसलिए उचित नहीं था कि वे वर्षों से इस कार्य को करते आ रहे हैं, इसलिए इसमें ट्रेंड हो चुके हैं। फिर चुनाव के दौरान इतने अतिरिक्त कर्मचारियों की व्यवस्था करना मुश्किल था। चुनाव भी हमेशा नहीं होते। चार-पांच साल बाद शिक्षक का नंबर आएगा। इसलिए शिक्षकों की लोकतंत्र के इस पर्व में भागीदारी पूर्व की भांति रहने दी गई है।
इस संबंध में डा.रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ कहते हैं कि काम के अनुरूप मंत्रालय का नाम होना आवश्यक था। गैरशिक्षण कार्यों से अध्यापकों को मुक्त करने के परिणाम धीरे-धीरे सामने आएंगे। यह कदम जनता, विद्यार्थियों और शिक्षकों तीनों के हितों के दृष्टिगत उठाया गया है।

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