कान्वेंट कल्चर से भी मिलेगी आजादी

भारतीयता की आत्मा का दस्तावेज है नई शिक्षा नीति

देहरादून। ’अंग्रेज चले गए, अंग्रेजियत छोड़ गए’। भारत के संदर्भ में यह बात सौ फीसदी सच है। अंग्रेजों ने शातिराना अंदाज में हम पर शासन किया। उन्होंने हमारी भाषा, संस्कृति, रीति-रिवाज, परंपराओं, इतिहास को छिन्न-भिन्न करने का कुत्सित कार्य किया। हमारी शिक्षा व्यवस्था को वे इतने कुटिल तरीके से अपने जाल में जकड़ गए कि हम आज तक उसका खामियाजा भुगत रहे हैं। उन्होंने देश में कान्वेंट स्कूलों की पौध खड़ी की, जो कालांतर में विशालकाय पेड़ों के घने जंगल का रूप ले गए। नई शिक्षा नीति-2020 से उम्मीद है कि वह इस जंगल का खात्मा करने में कारगर साबित होगी।
लगभग पौने दो सौ साल पूर्व तक भारत में शिक्षा के प्रमुख स्रोत और केंद्र यहां के गुरुकुल थे। स्कूल आश्रम पद्धति से चलते थे। शिक्षा का माध्यम संस्कृत भाषा थी। अंग्रेजों ने दिमाग लगाया कि भारत पर सुगमता से पूरी तरह राज करना है तो पहले यहां की संस्कृति को ध्वस्त करना होगा। इसके लिए यहां की शिक्षा व्यवस्था को चैपट कर अपने हाथ में लेना होगा। लाॅर्ड मैकाले को भारत भेजा गया। उसने 1835 में लगभग 1500 अधिकारियों की टीम के माध्यम से सर्वे कराया, जिसमें सामने आया कि भारत की सांस्कृतिक व्यवस्था गुरुकुलों पर टिकी है। अंग्रेजों ने इंडियन एजुकेशन एक्ट लागू कर इन गुरुकुलों को अवैध घोषित कर दिया। गुरुकुलों को मिलने वाले दान को भी गैरकानूनी घोषित कर दिया गया।
अंगेजों ने गुरुकुलों के स्थान पर यहां कान्वेंट स्कूल खोलने शुरू कर दिए। 1858 में इनका पाठ्क्रम बनाया गया। जिसमें प्रावधान था कि कान्वेंट स्कूलों में क्रिश्चियनिटी की शिक्षा दी जाए। पहला कान्वेंट स्कूल कलकत्ता में खुला, लेकिन इसके बाद भारत के शहर-शहर तथा गांव-गांव तक उनका विस्तार कर दिया गया। 1807 तक फ्री स्कूल के नाम से प्रसिद्ध इन स्कूलों में बच्चों का प्रवेश कराने के लिए पहले-पहले अभिभावक उदासीन रहते थे, क्योंकि इनमें तब अनाथों के बच्चे पढ़ते थे। बाद में अंग्रेजों के एजेंट भारतीयों का माइंड वाश कर उन्हें अपने बच्चों को इन स्कूलों में भर्ती कराने को प्रेरित करने लगे। और धीरे-धीरे पूरे भारत में ये बहुतायत रूप में खुल गए।
कान्वेंट स्कूली कल्चर ने न केवल प्राचीन भारतीय शिक्षा व्यवस्था को चैपट कर दिया, बल्कि यहां की संस्कृति को भी छिन्न-भिन्न करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। 1947 में भारत को स्वतंत्रता मिलने के बाद अंग्रेज तो यहां से चले गए, लेकिन हमें उनके द्वारा स्थापित शिक्षा व्यवस्था से मुक्ति नहीं मिल पायी। यही कारण है कि आजादी के इतने दशक बाद भी हम अपेक्षित प्रगति नहीं कर पाए, क्योंकि हमारी इंजीनियरिंग, चिकित्सा, तकनीक इत्यादि की पढ़ाई हमारी अपनी भाषा में नहीं होती है। संभवतः भारत ही ऐसा देश है, जो अंग्रेजो की गुलामी से मुक्त होेने बावजूद उनके शिक्षा सिस्टम को ढो रहा था और उनकी भाषा को अपनाए हुए था। विद्वानों का कहना है कि जिस देश में अपनी भाषा में पढ़ाई-लिखाई और कार्य होता है, वह खूब प्रगति करता है। जापान, चीन और फ्रांस आदि देश इसके उदाहरण है। लगभग 300 साल तक गुलाम रहे जापान ने आजादी के बाद संकल्प लिया था कि वहां के बच्चे अंग्रेजी नहीं पढ़ेंगे। आज यही कारण है कि अपनी भाषा में पढ़ाई-लिखाई के कारण जापान की आर्थिकी विश्व में किस उच्च स्तर पर है।
देखा जाए तो मोदी सरकार की शिक्षा नीति-2020 में अंग्रेजी और अंग्रेजों की शिक्षा व्यवस्था से मुक्ति दिलाने का प्रावधान है। विद्यार्थियों को स्कूल के सभी स्तरों और उच्च शिक्षा में संस्कृत को एक विकल्प के रूप में चुनने का अवसर दिया जाएगा। त्रिभाषा फाॅर्मूला में भी यह विकल्प शामिल होगा। इसके अनुसार किसी भी विद्यार्थी पर कोई भाषा नहीं थोपी जाएगी। भारत की अन्य पारंपरिक भाषाएं और साहित्य भी विकल्प के रूप में उपलब्ध होंगे। विद्यार्थियों को ’एक भारत श्रेष्ठ भारत’ के तहत 6-8 ग्रेड के दौरान किसी समय भारत की भाषाओं पर एक आनंददायक परियोजना/गतिविधि में भाग लेना होगा। खास बात यह है कि पांचवीं तक की पढ़ाई अनिवार्य रूप से मातृभाषा में होगी। नीति में यह भी उल्लेख है कि बेहतर होगा कि इसे आठवीं तक या आगे भी बढा़या जाए।

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